यह खण्डकाव्य केवल इलाहाबाद, आजमगढ़, मथुरा, देहरादून, पिथौरागढ़, चमोली आदि जिलों के लिए निर्धारित है।
दुर्योधन के द्वारा षड्यन्त्र करके लाक्षागृह में आग लगवा देने के बाद वह पूर्ण रूप से आश्वस्त हो गया कि अब पाण्डव समान हो गये हैं तो उसने और अधिक अत्याचार बढ़ा दिये, किन्त श्रीकृष्ण की बुद्धिमता एवं सावधानी से पाण्डव लाक्षागृह से जीतिन निकलकर छद्मवेश में द्रौपदी के स्वयंवर में राजा द्रुपद के यहाँ उपस्थित हुए। राजा द्रुपद की शर्त के अनुसार अजुन ने मछले की आँख का लक्ष्यवेध किया। निराश हुए अन्य राजाओं ने अर्जन पर घातक प्रहार किया, किन्तु भीम और अर्जुन ने उन्हें परात कर दिया। स्वयंवर में आये हुए श्रीकृष्ण और बलराम ने उन्हें पहचान लिया तथा उनके विश्राम गृह में रात्रि के समय मुलाकात की राजा द्रुपद ने द्रौपदी को अर्जुन को सौंप दिया। पाण्डव द्रौपदी के साथ माता कुन्ती के पास पहुँचे कुन्ती की इच्छा के अनुसा द्रौपदी का विवाह पाँचों पाण्डवों के साथ कर दिया गया। इस अवसर पर उन्हें श्रीकृष्ण द्वारा उपहार तथा राजा द्रुपद द्वारा बहुत दहे। दिया गया। पाण्डवों को जीवित देखकर तथा द्रौपदी द्वारा उनका विवाह करने की घटना से दुर्योधन अधिक चिन्तित हो उठा। हस्तिनापुर से कर्ण को साथ लेकर उसने धृतराष्ट्र से पाण्डवों का सर्वनाश करने का परामर्श भी किया। धृतराष्ट्र ने भीष्म पितामत, द्रोण तथा विदुर के परामर्श पर पाण्डवों को आधा राज्य देने का निश्चय किया। पाण्डवों को बुलाने के लिए विदुर को भेजा गया। पाण्डवों के साथ कुन्ती, द्रौपदी तथा श्रीकृष्ण भी हस्तिनापुर आये। हस्तिनापुर की जनता ने उन सभी का बड़ा आदर एवं स्वागत किया। दूसरे दिन धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर का राज्याभिषेक कर दिया। उसके बाद में गुरुजनों से विदा लेकर पाण्डव द्रौपदी सहित खाण्डव वन को चले गये।
द्वितीय सर्ग (समारम्भ)
पाण्डव श्रीकृष्ण को साथ लेकर खाण्डव वन पहुँचे, यह एक विशाल वन था। यहाँ पर श्रीकृष्ण ने स्वर्ग लोक जैसा इन्द्रप्रस्थ तैयार करा दिया। जो व्यक्ति पाण्डवों के साथ हस्तिनापुर से आये थे वे सभी वहाँ सुखपूर्वक रहने लगे। कुछ दिनों के पश्चात् श्रीकृष्ण पाण्डवों है आज्ञा लेकर द्वारिकापुरी वापस छले आये श्रीकृष्ण के वापस आते ममय पाण्दव व्याकुल होने लगे। भर्मराज पुथिष्टिर के राज्य में इ बहुत सुखी थी। वहाँ गुरुकुल में निवास करते हुए शिष्य लोग बढ़ा शिष्ट व्यवहार] करते थे। सब व्यक्ति अपने से बड़ं का ब आदर करते थे तथा अपने से छोटों को परम स्नेह करने थे। वहाँ पर किमी भीী प्रकार की उहण्डता के दर्शन नहीं होते थे। गथि्ठिर के की कीर्ति सर्वत्र फैली हुई थी।
तृतीय सर्ग (आयोजन) प्रहवों का द्रौपदी से विवाह होने के उपरान्त पाण्डवों के आपसी मतभेड को दर करने के लिए नारद जी ने गह परता रोपदी एक-एक वर्ष प्रत्येक पति के साथ रहें शर्त यह भी थी कि एक वर्ष तक एक पति के साथ रहते हुए पदि दूसरा पति प्रौपदी को देख ले तो उस पति को बारह वर्ष तक बन में रहना पड़ेगा। एक दिन एक चोर प्राणों की गायों को लेकर चल दिया। ब्राणों मे राजा के द्वार पर जाकर सहायता की प्रार्थना की। अर्जुन शस्वागार से शख लेने के लिए गये। शवागार में द्रौपदी और युधिष्ठिर को ठा हुआ देखकर अर्जुन नारद-नियम के अनुसार वनवास के लिए चल दिये। वनवास की अवधि में अनेक स्थानों पर घूमते हुए अर्जुन द्वारिकापुरी पहुंचे। वहां पर श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा से विवाह करके इन्द्रप्रस्थ वापस आ गये। श्रीकृष्ण सुभद्रा के लिए बहुत-सा दहेज सेकर इन्द्रप्रस्थ आ गये और बहुत समय तक कहाँ रहे। वहाँ पर अर्जुन और श्रीकृष्ण ने अग्नि-देव की तृप्ति के लिए भाषाक्दाह किया। अग्निदेव ने प्रसन्न होकर अर्जुन को चार श्वेत पोड़े तथा द्रुतगामी कपिध्वज नाम का रथ प्रदान किया। वरुणदेव ने अर्जुन को मादी धनुष और दो अक्षय तूणीर दिये। अग्नि ने श्रीकृष्ण को कौमुद्री गदा और सुदर्शन चक्र उपहार में दिया। मयदानव ने अग्नि की लपटों से व्याकुल होकर जीवन रक्षा की मांग की अर्जुन ने उसे अभयदान देकर बचा लिया। मयदानव ने प्रसन्न होकर धर्मराज युधिधिर के लिए अलौकिक सभा भवन तैयार किया। उसने अर्जुन को शंख तथा भीम को भारी गदा प्रदान की।
एक दिन प्रातःकाल पाण्डवों के पास नारद जी आये तथा युधिष्ठिर से पाण्डु का यह सन्देश कहा कि वह राजसूय यज्ञ करें जिससे कि मैं (पाण्डु) इन्द्रलोक में निवास कर सूं। युधिष्ठिर ने नारद जी द्वारा सन्देश भेजकर श्रीकृषणा को बुला लिया तथा राजमूच य् करने के लिए परामर्श लिया। श्रीकृष्ण ने कहा कि आप सम्राट् हुए बिना राजसूय यज्ञ नहीं कर सकते। सम्राट् बनने के लिए आपको जरासन्ध का वर्ष करना होगा। अतः सर्वप्रथम जरासन्ध का वध किया जाना चाहिए। जरासन्ध ने रुद्रयज्ञ में बलि देने के लिए दो हजार राजाओं को कैद कर रखा है। मैं उन राजाओं को छुड़ाने का आश्वासन देकर आया हूँ। युधिष्ठिर से आज्ञा लेकर भीम-अर्जुन को साथ लेकर श्रीकृष्ण जरासन्ध के पास पंचे। जरासन्ध ने भीम से मल्लयुद्ध करने का निश्चय किया। लगातार तेरह दिनों तक युद्ध होता रहा। भीम ने जरासन्ध को पका हुआ जानकर उसकी टांगें पकड़कर उठा लिया और जमीन पर पटक दिया। श्रीकृष्ण से संकेत प्राप्त करके भीम ने जरासन्ध की टांगे चीर कर विपरीत दिशा में फेंक दीं। जरासन्ध का क्रिया कर्म करके उसके पुत्र सहदेव का राज्याभिषेक किया। कैद से मुक्त हुए राजाओं तथा सहदेव ने युधिष्ठिर की अधीनता स्वीकार की। कुछ दिन तक वहाँ रहकर श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से विदा ली। इसके उपरान्त युधिष्ठिर ने अपने चारों भाई अर्जुन, भीम, नकुल तथा सहदेव को दिग्विजय के लिए भेजा सम्पूर्ण भारत युधिष्ठिर की छक्छाया में एक हो गया युषधिष्ठिर ने राजसूय यज् के लिए को आमन्त्रित किया। अर्जुन श्रीकृष्ण को इस यज्ञ में लाने के लिए द्वारिकापुरी गये।
चतुर्थ सर्ग (प्रस्थान) बोले पार्थ अकेले में जा केशव हाथ तुम्हारे लाजा
भव सागर से पार उतारो पाण्डव कल के तुम्ही जहाज।। द्वारिकापुरी में अर्जुन निमन्त्रण लेकर पहुंचे तो उन्होंने श्रीकृष्ण से एकान्त में कहा कि 'अब पाण्डव कुल की लाज आपके ही हाल में है।' श्रीकृष्ण ने अर्जुन को विदाकर बलराम और उद्धव से कहा कि राजसूय यज्ञ में सभी राजा आमन्त्रित हैं, अतः कोई भी असाधारण घटना हो सकती है। अतः उन्हें सेना सहित चलना चाहिए। श्रीकृष्ण सेना साथ लेकर इन्द्रप्रस्थ जा पहुँचे। युधिष्ठिर ने सूचना पाकर उनका
स्वागत किया। श्रीकृष्ण का सत्कार देखकर शिशुपाल और रुक्मी को ईर्ष्या होने लगी। वे दोनों ही स्वयं को पाण्डवों से श्रेष्ठ मानने
लगे। श्रीकृष्ण ने रुक्मी की बहन रुक्मणी को अपनी पटरानी बना लिया था। रुक्मणी का विवाह शिशुपाल से होनेवाला था अतः दोनों ही श्रीकृष्ण से ईर्ष्या रखते थे। राजसूय यज्ञ की सुव्यवस्था के लिए विभिन्न व्यक्तियों में कार्य विभाजन कर दिया गया । सब राजा आसनों पर बैठने लगे। श्रीकृष्ण ने ब्राह्मणों के चरण धोये। सबसे पहले पूजन के लिए जब सहदेव ने श्रीकृष्ण का नाम पुकारा तथा श्रीकृष्ण सभासदों के बीच आये तो सभी राजा आसनों से उठकर खड़े हो गये केवल शिशुपाल ही बैठा रहा। अग्रपूजा के लिए श्रीकृष्ण को ही सबसे श्रेष्ठ बताया गया था। भीम ने सहदेव को आज्ञा दी कि सबसे पहले श्रीकृष्ण को और फिर अन्य पूज्य राजाओं को अर्घ्य दो। सभी राजाओं ने इसका समर्थन किया, किन्तु शिशुपाल ने इसका विरोध किया। शिशुपाल ने इस प्रकार जब श्रीकृष्ण की निन्दा की तो भीम उठकर खड़े हो गये। श्रीकृष्ण की प्रशंसा और अग्रपूजा के लिए नाम प्रस्तावित किये जाने की बात शिशुपाल सहन नहीं कर सका और श्रीकृष्ण पर प्रहार करने के लिए दौड़ पड़ा, किन्तु श्रीकृष्ण प्रसन्न मुद्रा में बैठे रहे। वह जिधर भी प्रहार करने के लिए दौड़ता उसी दिशा में श्रीकृष्ण का हँसता हुआ मुख दिखाई देता। अन्ततः शिशुपाल हाँफ गया। श्रीकृष्ण ने शान्त भाव से कहा कि- तू मेरा फुफेरा भाई है, अतः अब तक के सारे दुर्व्यवहार को मैंने माफ कर दिया। अब ऐसा न हो कि तुझे दण्ड देना पड़ जाये। शिशुपाल फिर भी श्रीकृष्ण की निन्दा करता रहा। तब श्रीकृष्णा ने अपने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल के सिर को काट दिया। धर्मराज युधिष्ठिर ने आदरपूर्वक उसका अन्तिम संस्कार किया तथा उसके पुत्र का राज्याभिषेक किया।
षष्ठ सर्ग (उपसंहार)
शिशुपाल की मृत्यु के बाद भी राजसूय यज्ञ विधिवत् रूप से चलता रहा। व्यास तथा धौम्य आदि सोलह ऋषियों ने बड़े ही विधि विधान से यज्ञ सम्पन्न कराया। युधिष्ठिर ने दान-दक्षिणा देकर सभी ऋषियों का सत्कार किया और सभी राजाओं को आदर-सत्कार के साथ सन्तुष्ट किया। उन्होंने बलराम तथा श्रीकृष्ण को धन्यवाद दिया। व्यास आदि ऋषियों ने युधिष्ठिर को अपना आशीर्वाद प्रदान किया। इस प्रकार से अग्रपूजा खण्डकाव्य की कथा पूर्ण होती है।
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VIVEK KUMAR