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{मातृभूमि के लिए खंडकाव्य}【डॉ●जयशंकर त्रिपाठी】
यह खंडकाव्य केवल गोरखपुर, मुरादाबाद,शाहजहांपुर, लखीमपुर खीरी, मैनपुरी, मुजफ्फरनगर आदि जिलों के लिए ही है।
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प्रथम सर्ग(संकल्प)
भारत की स्वतन्त्रता से पूर्व यहाँ ब्रिटिश हुकूमत थी। अग्रेजों का सामाज्य था। भारतीय लोगों पर अंग्रेज तरह-तरह के अत्याचार कर रहे थे। परिणाम यह हुआ कि अनेक भारतीय उत्साही वीरों ने स्वाधीनता का संघर्ष छेड़ दिया। गांधी जी ने सत्य, अहिंसा तथा स्वदेशी. का सन्देश दिया। अंग्रेज सरकार देशभक्तों पर विभिन्न प्रकार के जुल्म कर रही थी। एक तरफ अंग्रेजों के द्वारा किये गये अत्याचार बढ रहे थे तो दूसरी तरफ वीर देशभक्तों के हृदय में स्वतन्त्रता की चिनगारी सुलग रही थी। उसी वातावरण में चन्द्रशेखर आजाद ने आकर बलिदान का मार्ग प्रशस्त कर दिया।

चन्द्रशेखर आजाद का जन्म मध्य प्रदेश के भंवरा नामक गाँव में हुआ था। बड़ा होकर वह ब्राह्मण बालक अध्ययन करने के लिए काशी आया। वहाँ समाचार-पत्रों में अंग्रेजों के जुल्मों की कहानी पढ़कर उसका खून खौलने लगा, उसका चेहरा क्रोध से तमतमा उठा। रौलट एक्ट और उसके विरोध में जलियांवाला बाग में सभा हुई। अंग्रेजों ने चारों ओर से घेरकर उस निहत्थी भीड़ पर गोती चलवा दी। जनरल डायर के आदेश पर इस हत्याकाण्ड का समाचार सुनकर चन्द्रशेखर की आँखें सजल हो उठी, मुख क्रोध से लाल हो गया। उन्होंने अपने साथियों को देश-भक्ति की प्रेरणा दी और कहा,,,,,,

""सूत्रों का रटना छोड़ो तो अब स्वतन्त्रता का पाठ पढ़ो। इस घटना के बाद चन्द्रशेखर ने भारत माता की पराधीनता की बेड़ियों को तोड़ने का प्रण कर लिया""

1921 ई० में जब ब्रिटिश युवराज भारत आये तो महात्मा गाँधी ने असहयोग का नारा दिया। देश के कोने-कोने से कर्मचारी-अपने कार्यालय, विद्यार्थी अपने विद्यालय तथा मजदूर अपने कारखाने छोड़कर निकल पड़े। अंग्रेजों का दमन चक्र बढ़ गया। 15 वर्ष का बालक चन्द्रशेखर भी बन्दी बना लिया गया। जब उन्हें मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया और मजिस्ट्रेट ने नाम पूछा तो उत्तर मिला आजाद। पिता का नाम पूछा तो चन्द्रशेखर ने कहा- स्वाधीन। निवास-स्थान पूछा गया तो उसने कहा- जेलखाना। चन्द्रशेखर को सोलह बेतों का दण्ड दे दिया गया। बालक बॅतों की मार खाकर भी "भारत माता की जय बोलता रहा। एक छोटे-से बालक ने ग्रेजों को चुनौती दे दी। काशी के लोगों ने उनकी देशभक्ति और वीरता से प्रभावित होकर चन्द्रशेखर का बढ़ा मान-सम्मान किया तथा अपार स्नेह दिया। इस प्रकार चन्द्रशेखर का नाम बिजली की चिनगारी की तरह सम्पूर्ण भारत में फैल गयी थी। 

द्वितीय सर्ग (संघर्ष)

चन्द्रशेखर सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्त होकर एक ही बन्धन में बंध गये थे और वह था राष्ट्रभक्ति का बन्धन। आजाद के अद्भुत शौर्य को देखकर देशवासी तो क्या प्रकृति भी उन पर मोहित हो गयी थी। देश को आजाद कराने के लिए उन्होंने अपने साथियों और नवयुवकों के हृदय में राष्ट्रीय चेतना की अग्नि भढ़का दी। जब असहयोग आन्दोलन का प्रभाव कम पड़ने लगा, तो उन्होंने सशस्त्र क्रान्ति का प्रश्रय लिया तथा इसके लिए उन्होंने बम तथा पिस्तौल का निर्माण करवाया। जब इन चीजों के लिए उन्हें धन की आवश्यकता पड़ी तो उन्होंने सरकारी खजाने को लुटवाया तथा एक मठाधीश का शिष्यत्व भी स्वीकार किया। आजादी के लिए उन्हें ड्राइवरों की आवश्यकता हुई तो उन्होंने मोटर ड्राइवरी भी सीखी । चन्द्रशेखर ने काकोरी में सरकारी खजाना लूटा। इस काण्ड में पकड़े जाने पर बिस्मिल तथा अशफाक उल्ला खाँ को फांसी दे दी गयी तथा बख्शी को आजीवन कारावास का दण्ड दिया गया। कोशिश करने पर भी चन्द्रशेखर और भगतसिंह को सरकार गिरफ्तार न कर सकी।

1928 ई० में 'साइमन कमीशन' भारत के झगड़ों की जाँच के लिए आया राष्ट्रीय स्वयंसेवकों ने इसका बड़ी सखती से विरोध किया। परिणामतः उन्हें सरकार की लाठियों का प्रहार झेलना पड़ा जिससे क्रोधित होकर सारे भारत में जनता ने साइमन कमीशन का विरोध किया। लखनऊ में अंग्रेजों ने जवाहरलाल नेहरू पर लाठियों बरसायीं और वह घायल हो गये लाहौर में भी साइमन कमीशन का पूरी सख्ती से विरोध हुआ और वहाँ के आकाश में 'साइमन कमीशन वापस जाओ के नारे गूंजने लगे। पंजाब केसरी लाला लाजपत काले इण्डों के साथ नारे लगा रहे थे, उन पर पुलिस अफसर स्काट ने निर्ममतापूर्वक प्रहार किया जिससे घायल अवस्था जानका कुछ दिनों के बाद देहावसान हो गया। उनकी मृत्यु का समाचार सुनकर पूरे देश मे सोक व्याप्त हो गया। इस समय पूर्वी मैं चन्द्रशेखर आजाद क्रांति की ज्वाला धधका रहे थे उधर पश्चिमी भारत में सरदार भगतसिंह।

चन्द्रशेखर आजाद ने दिल्ली के फिरोजशाह मेले में क्रान्तिकारियों का सम्मेलन किया जिसमें  सुखदेव, बटुकेश्वर दत्त, यतीन्द्रनाथ दत्त, करदार भगतसिंह आदि सभी देशभक्त उपस्थित हुए। सबके सहयोग से चन्द्रशेखर आजाद ने हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी का गठन किया। आजाद इस सेना के कमाण्डर-दन-चीफ थे। लाहौर में चन्द्रशेखर ने भगतसिंह और राहणुस में मिलकर लाला लाजपतराय के हत्यारे पुलिस अफसर स्काट की हत्या करने की योजना बनायी। स्काट के स्नान पर सैण्डरस मारा गया। इससे अंग्रेज भयभीत हो गये और उन्होंने असेम्बली में "जनता राजा वित प्रस्तुत किया. जिसे अध्यक्ष विट्टल भाई पटेल ने पास नहीं होने दिया। 5 अप्रैल को सरदार भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने असेम्बली में बम फेंका जिससे अंग्रेज भयभीत हो गये। दोनों राष्ट्रभक्त अंग्रेज सरकार द्वारा बन्दी बना लिए गये। उन पहले आजीवन कारावास फिर बाद में प्राणदण्ड दिया गया। आजादी का सारा भार अब प्रखर चन्द्रशेखर के सिर पर आ गया।

तृतीय सर्ग (बलिदान)

चन्द्रशेखर आजाद उन दिनों मध्य प्रदेश की सातार नदी के किनारे हनुमान मन्दिर की कोठरी में विश्राम किया करते थे। वहाँ की प्रकृति बहूत ही सुहानी थी। चारों और पलाश के लाल-लाल फूल फैले हुए थे। एक रात को मास्टर रुद्रप्रयाग और खन्द्रोखर भारत माता को पराधीनता की बेड़ियों से मुक्त कराने के लिए भविष्य की योजना बना रहे थे। रुद्रप्रयाग से आजाद ने कहा कि- तुम कुछ दिनों तक चुपचाप रहकर संगठन शक्ति को मजबूत करो, मैं नहीं चाहता कि कहीं हड़बड़ी और जल्दबाजी में तुम्हारे प्राण संकट में पढ़ आयें। चन्द्रशेखर ने पलाश के फूलों पर एक दृष्टि डाली और भावुक होकर कहा- यह धरती जो पलाश के लाल-लाल फूलों की चूनर ओढ़े हैं उसमें मुझे विस्मिल, अशफाक, रोशन, खुदीराम बोस और यतीन्द्रनाय का रक्त बहता हुआ दिखाई दे रहा है। भगतसिंह और राजगुरु को मृत्यु-दण्ड मिला है। अंग्रेजों भारत माता के पुत्रों के खून से ही उसका आँचल रंग दिया है। इस कृत्य के लिए मैं अंग्रेजों को छोड़ नहीं सकता। इसके लिए मैं प्रतीक्षा नहीं कर सकता। आर्मी के संगठन को मजबूत करके क्रान्ति का बिगुल बजाते हुए मुझे अपना दायित्व पूरा करना ही होगा।

एक दिन आजाद फूलबाग की सभा में सशस्त्र क्रान्ति के विरुद्ध भाषण सुन रहे थे, वहीं पर खड़े गणेशशंकर विद्यार्थी ने उनके उत्तेजित मन को शान्त किया और कहा - "देख आजाद! नेता की अनजानी बातों को मत-सुनना।" उन्हें इस बात का डर था कि कहीं आजाद सभा को भंग न कर दें। उनका यह विचार प्रेम ही था। आजाद ने कहा कि मैं प्रयाग में जवाहरलाल नेहरू से मिलना चाहता हैं, कानपुर में पार्टी के संगठन की क्या स्थिति है देखना चाहता हूँ तथा प्रयाग में संकट को दूर करने का उपाय सोचूंगा।

प्रयाग के उत्तरी भाग में वृक्षों के नीचे आजाद अपने मित्रों से बात कर ही रहे थे कि अल्फ्रेड पार्क के पास आकर पुलिस की गाड़ी रकी। आजाद ने तुरन्त अपने मित्रों को विदा किया तथा पिस्तौल में गोलियाँ भरीं तथा पुलिस से मोर्चा लिया। उन्होंने पिस्तौल की पहली गोली से एक देशी अफसर का जबड़ा तोड़ दिया। एस०पी० नॉटवावर यह देखकर हैरान था। उसने वृक्ष की ओट ली। इस समय आजाद अकेले ही पुलिस का सामना कर रहे थे। लगातार एक घण्टे तक युद्ध चलता रहा। सारा वातावरण गोलियों की आवाज से गुंज गया। अन्त में जब पिस्तौल में एक गोली शेष रह गयी तो आजाद असमंजस में पड़ गये और उन्होंने सोचा कहीं पुलिस के हाथों पकड़ा न जाऊँ, किन्तु कुछ क्षणों के बाद देश के उस लाडले सपूत ने अपनी ही पिस्तौल की गोली अपनी ही कनपटी पर मार ली और सदैव के लिए भारत माता की गोद में सो गया। सम्पूर्ण भारत की जनता उनकी मृत्यु को सुनकर रुदन करने लगी। चारों ओर वीर बलिदानी आजाद की जय-जय के नारे लगने लगे। आजाद के शौर्य और साहस का स्मरण कर आज भी जनता के मन में राष्ट्र प्रेम की भावना जागृत होने लगती है।
इसके लेख़क जयशंकर त्रिपाठी जी है।

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       ●VIVEK KUMAR●