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यह खंडकाव्य केवल कानपुर,प्रतापगढ़, मिर्जापुर, ललितपुर,रामपुर,गोंडा आदि जिलों के लिए है।
इस खंडकाव्य के लेखक श्री देवीप्रसाद शुक्ल है।
      प्रथम सर्ग 
खण्डकाव्य के आरम्भ में कवि विषय-प्रवेश के अन्तर्गत सर्वप्रथम पं० जपाहरलाल नेहरू के निधन पर उन्हें सह-अमित सरगम, अहिंसा के अनूठे छन्द, मानवता के संगम, जागरण के काव्य, युग की प्रेरणा, विधाता के अछूते प्रन्थ, मनु के मन्त्र आदी विशेषणों से सम्बोधित करते हुए श्रद्धांजलि अर्पित करता है। कथा का प्रारम्भ पं0 नेहरू के अलौकिक दिव्य पुरुष के रूप में अवतार से होता है जिसमें सूर्य की ज्योति है, चाँद की गन्ना है, हिमालय का स्वाभिमान है, सागर की गम्भीरता है, हवा की अवाध गति है, धरती-सा धैर्य है। भारत की मिट्टी में उनका पालन हुआ। जन्मभूमि गंगा-जमुना का संगम इलाहाबाद है। पूज्य बापू के कर्म योग की प्रेरणा मिलती है। नेहरू और बापू का निलन गुम- अथवा मोहन और युधिष्ठिर के समान है, यथा

उसका आशीष और तेरा, नत मस्तक ही करता प्रणाम।

यों लगा कि जैसे गुरु वशिष्ठ, के चरणों पर हों झुके राम॥ अथवा मोहन के चरणों पर हो झुका युधिष्ठिर का माथा। या खोज रहा हो फिर भारत अपनी खोयी गौरव गाथा। पं0 नेहरू के अखण्ड ज्योति के रूप में इस भरा-धाम पर अवतीर्ण होने पर कवि कल्पना के अनुसार भारत का खष्ड-खणड अ। अखण्ड दिव्य रत्नों को नायक पर न्योछावर करने को आतुर को उठता है। अहिंसा के अग्रदूत को शिवाजी की तलवार सौपने की योजन महाराष्ट्र बनाता है तो उसे शान्ति और अहिंसा के युग के लिए अनुपयुक्त बतलाया जाता है। इस पर महाराष्ट्र हिंसा और

परिभाषित करता है अत्याचारी के चरणों पर, झुक जाना भारी हिंसा है। पापी का शीश कुचल देना, जो हिंसा नहीं अहिंसा है।

अहिंसा को

तदनन्तर अतीत से प्रेरणा लेकर वर्तमान परिवेश में नया मोड़ देने और स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए प्रेरित करने हेतु गुरु रामदास की राष्ट्रीय चेतना, सन्त ज्ञानेश्वर का कर्मवाद, लोकमान्य तिलक का 'करो या मरो' का उपदेश, आदि सबकुछ लोकनायक पर न्योछाडा किये जाते हैं। फिर पराधीनता के युग में संघर्षों से टकराने की क्षमता प्रदान करके उसके लिए राजस्थान लोकनायक को मन्त्र देता ।ै

ले लो मेरे जीवन की निधि, जीवन का रंग-ढंग ले लो। यदि पड़े जरूरत ऐसे में, तो मेरा अंग-अंग ले लो।॥

आखिर यह सबकुछ भारत की, माटी की ही तो माया है। भीतर से सबकुछ एक मगर, बाहर से बदली काया है।

इस प्रकार राणा सांगा, कुंभा, महाराणा प्रताप के गौरवशाली अतीत की कथाएँ लोकनायक के जीवन में आकर उन्हें त्याग, रेव और स्वतन्त्रता संग्राम के लिए प्रेरणा प्रदान करती हैं भारत की अखण्डता का उद्योध करता हुआ सतपुड़ा कहता है बूढ़ा सतपुड़ा लगा कहने, हूँ दूर मगर अलगाव नहीं।

कम हुआ आज तक उत्तर से, दक्षिण का कभी लगाव नहीं।। लोकनायक पं० जवाहरलाल के सार्वभौमिक व्यक्तित्व के निर्माण में दक्षिण भारत के जगद् गुरु शंकराचार्य रामानुज आदि का 
व्यापक प्रभाव रहा। भवभूति, कालिदास की सर्जनात्मक भावुकता ने नायक के व्यक्तित्व में साहित्य, कला और संस्कृति की तिरिवेणी रित की। 'अप्पर द्वारा 'सत्याम्रह' का मन्त्र मिला।


কি बंगाल के कालिदास कृत 'रामायण, कवि कंकड़, चण्डीदास, दौलत काजी, विवेकानन्द, दीनबन्धु के साथ ही बाकम पाकेता अवेमातरम्' की छाप भारत के मानस पटल पर अंकित हुई। टैगोर और शरत बाबू की अमर कला, शाहजफर की गजलें हृदय में स्पन्दन । करनेवाली हैं। नेताजी के घायल सपने विकल हैं। इन सबको संजोकर वह कथानक को समर्पित करने के लिए प्रस्तुत होती है। असम । पूरी क्षमता के साथ नायक पर न्योछावर होता है। वह कहता है

मेरी हर धड़कन प्यासी है, तेरे चरणों के चुम्बन को। खेती तैयार खड़ी है, रे जन-मन के स्नेह समर्पण को।

तदनन्तर विहार भगवान बुद्ध के उपदेश, गोपा के आँसू, राहुल की ततली बोली, तीर्थंकर महावीर के उपदेश, पाटलिपुत्र की रवमय इतिहास, मगध की ममता, बिम्बसार की आत्मकथा, समुद्रगुप्त का यश, चन्द्रगुप्त का शीर्य कौटिल्य के सपने, अशोक की सत्य और अहिंसा, पुष्यमित्र की वैदिक संस्कृतियों का गिरजा, पतंजलि का चिन्तन, नालन्दा का विज्ञान और कला के त्व, विद्यापति की भावुकता लेकर आनन्द भवन में कथानक संगम के राजा पं० नेहरू पर न्योछावर करता है। उत्तर प्रदेश नायक को अपनी गोद में पाकर अपने को धन्य मानने लगा है। तीर्थराज प्रयाग के संगम पर करोड़ों की भीड़ इकट्ठा हो गयी। मथुरा, वृन्दावन और अवधपुरी की गलियों में चर्चा होने लगी कि द्वापर और त्रेता के शक्तिशाली कृष्ण और राम अब नये रूप में अवतरित हो गये हैं। तुलसी के रामचरितमानस का सपना साकार हो गया है। सूर के गीतों के फूल बरसने लगे हैं। सारनाथ के

सपने जाग उठे हैं। मगहर से कबीर ने उपदेश दिया

हिन्दू मुस्लिम, मन्दिर-मस्जिद, काबा-काशी का क्या झगड़ा? भूल से मोल न तू लेना, मजहब का यह गड़ा-झगड़ा।

गंगा तट पर बैठे बिठूर के नाना से हाँ भरता हुआ बोला कि अब भारत की आजादी का शीघ्र ही हल निकलने वाला है और 1857 ई० के बलिदान का शीघ्र ही फल मिलेगा बूढ़ी झाँसी की रानी की आँखों के सपने टपक पड़े। रोती कलपती, झाँसी की रानी सत्तावन की कुर्बानी के रूप में 'राखी' लेकर प्रस्तुत हुई। विद्रोह की आग फैलानेवाले तात्या टोपे 'मेरठ की चिंगारी' लेकर स्वागत में पहुँच गया।

संकोची पंजाब 'आजाद की दुल्हन' के डोले को कन्धे पर लेने के लिए उत्साह में पहुँच गया और कहीं लगा कि जहाँ लाला लाजपतराय, सरदार भगतसिंह जैसे बहादुर हैं वहाँ लज्जा लुटने का कोई प्रश्न नहीं है जिस पंजाब पर पोरस की बिजली टूटी थी, सिकन्दर की तलवार जहाँ घबराकर लौट गयी थी, जहाँ पर सेल्यूकस की किस्मत फूटी थी, जहाँ पर कौटिल्य शास्त्र का महामन्त्र सर्वप्रथम उद्घोषित हुआ था, जहाँ पर हड़प्पा और मोहड़जोदड़ो के खण्डहर विश्व की प्रथम सभ्यता का नेतृत्व करते हैं। वह गुरुनानक और अर्जुनदेव के आशीर्वादों तथा अपने विभाजन की करुण कहानी को लेकर कथानक के समक्ष श्रद्धाननत होता है।
गैरों की मरजी से बदले, ऐसी मेरी तकदीर नहीं। भारत से विलग कभी होगा कश्मीर नहीं, कश्मीर नहीं।

'कुरुक्षेत्र' करवट लेकर अत्याचारी दुर्योधन के पैशाचिक उत्पातों का अन्त करने के लिए कथानक को अर्जुन रूप से सम्बोधित करते हुए बोला कि तुम पर चर्खा रूपी चक्र सुदर्शनधारी मोहन (गांधीजी) की कृपा है, तुम गीता के कर्मयोगी मानवता की दिव्य ज्योति और जीवन दर्शन के लिए आओ तुम्हारा स्वागत है। घायल दिल्ली बर्बादी से दबी है, लाल किला अपराधी की भाँति खामोश खड़ा है, अपने-अपने अतीत की दर्दभरी कहानी को याद करता हुआ वह अपनी ऐश्वर्य-हीनता की विवशता का दिग्दर्शन करते हुए बोल कैसे दे दूँ मेरे मालिक! हिंसा की घृणित कहानी को।
है- लूटा है जाने कितनों ने, भोली दिल्ली की रानी को ॥ 


लाल किला यमुना को अपनी क्रान्तिकारी चिनगारियों को देखते हुए तुरन्त आनन्द भवन पहुँचने का अनुरोध करता है और यमुना कथानायक का अभिनन्दन करने के लिए संगम पर पहुँच जाती है। इस प्रकार सभी ने भेंट के रूप में अपनी संचित निधि को कथानायक के लिए न्योछावर कर दिया और सारा भारत पं० नेहरू में आत्मसात् होकर सम्पूर्ण भारत का प्रतीक बन गया।

जब लगा देखने मानचित्र, भारत न मिला तुझको पाया। जब देखा तुझको नयनों में, भारत का चित्र उतर आया॥

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    VIVEK KUMAR