यह खण्डकाव्य केवल अलीगढ़, जौनपुर, बलिया, हमीरपुर, एटा, नैनीताल जिलों के लिए निर्धारित है।
कर्ण खंडकाव्य (केदार नाथ मिश्र)
कुन्ती को सूर्य के वरदान से कौमार्यावस्था में ही एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। लोकलाज के भय तथा कुल की मर्यादा के कारण कुन्ती ने उस पुत्र को नदी में बहा दिया। अधिरथ नाम के एक सूत ने उस पुत्र को नदी से निकाला और घर ले गया। अधिरथ की पर राधा ने बड़े प्रेमपूर्वक उसका पालन-पोषण किया राधा द्वारा पालन-पोषण किये जाने के कारण उसका नाम राधेय पड़ा। कुछ बड़ा हो पर एक दिन वह बालक राजभवन की रंगशाला में आ गया, परन्तु पाण्डवों ने उसकी वीरता पर व्यंग्य किया। दुर्योधन ने इसके विपरित उसे बड़ा सम्मान दिया और कहा कि जो तुम्हें सूत-पुत्र कहेगा मैं उसको नीचा अवश्य दिखाऊंगा। दुर्योधन के द्वारा इस प्रकार के से उसे बड़ी सान्त्वना मिली और दुर्योधन का परम मित्र बन गया । पाण्डवों के सामने कर्ण को और भी कई स्थानों पर नीचा देखना पड़ा। द्रौपदी के स्वयंवर में जब वह लक्ष्यभेद करने को उठा तो द्रौपदी ने भी उसे अपमानित करते हुए इस प्रकार कहा

सूत पुत्र के साथ न मेरा गठबन्धन हो सकता। क्षत्राणी का प्रेम न अपने गौरव को खो सकता॥

द्वितीय सर्ग (द्यूत सभा में द्रौपदी)

 महाराज द्रुपद ने अपनी पुत्री द्रौपदी का स्वयंवर करने के लिए देश भर के राजाओं को आमन्त्रित किया। उस स्वयंवर में ब्राह्मण वेशधारी अर्जुन ने लक्ष्य को वेध किया और द्रौपदी का वरण किया। द्रौपदी पाँचों पाण्डवों की वधू बन कर आ गयी। विदुर के समझने पर युधिष्ठिर को हस्तिनापुर में आधा राज्य भी प्राप्त हो गया कुछ समय के बाद पाण्डवों ने राजसूय यज्ञ किया। पाण्डवों का वैभव देखने के लिए दुर्योधन भी वहाँ आया। राजभवन में भ्रमवश जहाँ जल भरा हुआ था, दुर्योधन ने उसे स्थलभाग समझा और वह जल में गिर गया। द्रौपदी उसे देखकर हँस पड़ी और कहा कि- अन्धों की सन्तान अन्धी ही होती है। दुर्योधन इस अपमान से इतना आहत हुआ कि उसने मन-ही-मन द्रौपदी से इस अपमान का बदला लेने का प्रण कर लिया। अपने मामा शकुनि से मिलकर दुर्योधन ने पाण्डवें के साथ कपट द्यूत क्रीड़ा की योजना बनायी। इस कपट क्रीड़ा में मामा शकुनि की चाल से दुर्योधन ने युधिष्ठिर को हरा दिया। अन्त में युधिष्ठिर ने द्रौपदी को भी दांव पर लगा दिया। दुर्भाग्य से वे द्रौपदी को भी हार बैठे। दुर्योधन की आज्ञा से दुःशासन द्रौपदी को बाल पकड़कर घसीटता हुआ राजसभा में ले आया। द्रौपदी ने बहुत प्रार्थना की किन्तु दुःशासन नहीं माना। कर्ण ने इस अवसर का लाभ उठाते हुए 
दुःशासन को और अधिक प्रेरित किया
दुःशासन मत ठहर, वस्त्र हर ले कृष्णा के सारे। वह पुकार ले रो रोकर, चाहे वह जिसे पुकारे ।।

इस कार्य के लिए उत्साहित तो किया किन्तु वह जीवनपर्यन्त अपने इस कृत्य पर पश्चाताप करता रहा। जब मालूम हुआ कि कुन्ती उसकी माँ है और पाण्डव उसके भाई हैं तो उसे और अधिक पछतावा हुआ।

तृतीय सर्ग (कर्ण द्वारा कवच कुण्डल दान ) 

द्यूत क्रीड़ा में हारकर युधिष्ठिर अपने भाइयों के साथ वन-वन भटकने लगे। उधर दुर्योधन ने यज्ञ किया और वह चक्रवर्ती सप्राट बन गया। कर्ण ने प्रतिज्ञा की कि जब तक मैं अर्जुन को मार नहीं दूंगा, तब तक किसी से पैर नहीं धुलवाऊँगा और जो मुझसे कुछ माँगेगा में उसे वही दूँगा। कर्ण के इस प्रण से युधिष्ठिर अतिचिन्तित रहने लगे क्योंकि कर्ण के कुण्डल और कवच लिए बिना उसे परास्त नहीं किया

जा सकता था। इन्द्र अर्जुन की सहायता करना चाहते थे क्योंकि अर्जुन इन्द्र का ही पुत्र था। इन्द्र ब्राह्मण का वेश धारण करके कर्ण के

पास कुण्डल और कवच माँगने गये। कर्ण ने सूर्य के बताने पर इन्द्र को पहचान तो लिया किन्तु फिर भी प्रतिज्ञा के अनुसार कुण्डल और कवच इन्द्र को दे दिये। 

चतुर्थ सर्ग (श्रीकृष्ण और कर्ण)

 पाण्डवों को दुर्योधन ने राज्य में हिस्सा देने से मनाकर दिया। पाण्डवों के प्रति न्याय को दृष्टि में रखते हुए श्रीकृष्ण दुर्योधन की सभा में आये, किन्तु सभा में निराश होकर श्रीकृष्ण सभा से बाहर आये तथा कर्ण को अपने पास बुलाकर समझाया कि वह तो पाण्डवें का बड़ा भाई है। यह बात सुनकर कर्ण आश्चर्यचकित रह गया। श्रीकृष्ण के सामने कर्ण ने अपना दुःख प्रकट करते हुए कहा कि-न जाने कितने अवसरों पर लोगों ने मुझे सूत-पुत्र कहकर अपमानित किया किन्तु इसके बाद भी मेरी माता ने कभी भी मुझे अपना पुत्र स्वीकार नहीं किया। कवि ने कर्ण की मनोवेदना का वर्णन करते हुए कहा है यों न उपेक्षित होता मैं, यों

भाग्य न मेरा सोता। स्नेहमयी जननी ने यदि, रंचक भी चाहा होता।। घृणा, अनादर तिरस्क्रिया, यह मेरी करुण कहानी।

देखो, सुनो कृष्ण! क्या कहता इन आँखों का पानी। कर्ण ने श्रीकृष्ण से कहा कि मैं जानता हूँ कि जीत उसी तरफ होगी जिस तरफ तुम हो। फिर भी मैं दुर्योधन के द्वारा किये गये उपकार को नहीं भूल सकता। मैं उसी के पक्ष में लड़ँगा। मैंने अपने कण्डल-कवच भी दान में दे दिये हैं, पाण्डवों को इन्हीं का भय था। इसके साथ ही द्रौपदी के प्रति कराये गये अत्याचार का स्मरण करके कर्ण बहुत दुःखी हुआ श्रीकृष्ण ने उसे दुराग्रही बताया। किन्तु कर्ण दुर्योधन का साथ छोड़ने को तैयार न हुआ।

पंचम सर्ग (माँ-बेटा)

 महाभारत का युद्ध होने तक अब केवल पाँच दिन शेष रह गये थे। कुन्ती इससे अत्यन्त व्याकुल होने लगीं उन्हें तो सबसे बड़ा दुःख यही था भाई-भाई ही एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गये हैं और एक भाई ही दूसरे भाई की मृत्यु का कारण बनेगा। कुन्ती ने अच्छी तरह विचार किया और कर्ण के पास गयीं | कर्ण ने कुन्ती को प्रणाम किया और अपना परिचय राधेय के रूप में दिया। कुन्ती ने कहा कि तुम राधा के पुत्र नहीं हो बल्कि मेरे पुत्र हो। कुन्ती की यह बात सुनकर कर्ण की आँखें क्रोध से लाल हो गयीं। कर्ण ने कहा- 'जब मैं अपमानित किया जा रहा था और पाण्डव मुझे सूत-पुत्र कहकर व्यंग्य-बाण छोड़ते थे तब तुम्हारा पुत्र-प्रेम कहाँ चला गया था? आज तुम पाण्डवों के सिर पर मौत का साया देखकर मेरे सामने इस रहस्य को प्रकट करने आयी हो? कर्ण ने कुन्ती से कहा,
क्यों तुमने उस दिन न कहा, सबके सम्मुख ललकार। कर्ण नहीं है सूत-पुत्र, वह भी है राजकुमार।।

कुन्ती की आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। कर्ण ने कहा मेरे भाग्य के साथ बहुत खिलवाड़ हुई है, किन्तु यह भी बड़ी विडम्बना होगी कि - एक माँ अपने पुत्र के पास से खाली हाथ लौटे। मैंने केवल अर्जुन को ही मारने की प्रतिज्ञा की है। मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि में अन्य किसी पाण्डव को नहीं मारूंगा। कुन्ती वापस लौट आयी। इधर कर्ण के हृदय में भी विचारों का सागर लहराने लगा।

षष्ठ सर्ग (कर्ण-वध) 

 महाभारत का युद्ध अब प्रारम्भ हो गया। कौरवों की ओर से पितामह भीष्म सेनापति हुए। कर्ण को नीच और अभिमानी कहकर भीष्म ने उसका सहयोग लेने से इनकार कर दिया दसवें दिन भीष्म युद्ध में घायल होकर शरशैय्या पर लेट गये, तो कर्ण उनके पास गये। पितामह ने कर्ण से पाण्डवों की रक्षा करने के लिए कहा। कर्ण ने कहा- मैंने अर्जुन को मारने की प्रतिज्ञा की है और मैं अपनी प्रतिज्ञा नहीं त्याग सकता। युद्ध के सोलहवें दिन कर्ण कौरवों का सेनापति बना। उसकी भयंकर बाण वर्षा से पाण्डव व्याकुल होने लगे तभी भीम का पुत्र घटोत्कच भयानक मायावी आकाश युद्ध करता हुआ कौरवों की सेना पर टूट पड़ा। कौरव सेना रक्षा के लिए कर्ण के पास गयी तो कर्ण ने अमोघ अस्त्र से घटोत्कच का वध कर दिया जिसे वह अर्जुन पर चलाना चाहते थे। वह सोचने लगे कि यह भी कृष्ण की ही माया है। अब अर्जुन की विजय निश्चित थी। दिन थोड़ा ही शेष था। कर्ण के रथ का पहिया जमीन में धेंस गया। वह पहिये को निकालने लगा तभी कृष्ण का संकेत पाकर अर्जुन ने कर्ण का वध कर दिया।

सप्तम सर्ग (जलाञ्जलि)

कर्ण का वध होने के बाद कौरवों की सेना कमजोर हो गयी। वे युद्ध में मारे गये। युधिष्ठिर ने अपने ही कुल के भाइयों को जल दान दिया। तभी कुन्ती ने कर्ण को भी जल-दान देने को कहा । युधिष्ठिर द्वारा पूछे जाने पर कुन्ती ने कर्ण के जन्म की सारी कहानी प्रकट कर दी। यह जानकर कि कर्ण उनके ही बड़े भाई थे युधिष्ठिर को बड़ा ही दुःख हुआ। उन्होंने बड़ी श्रद्धापूर्वक कर्ण को जल दान दिया। उनके मन की वेदना कवि ने इस प्रकार व्यक्त की है

मानव को मानव न मिल सका, धरती को धृति धीर। भूलेगा इतिहास भला कैसे, यह गहरी पीर।॥
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    VIVEK KUMAR