जय सुभाष खंडकाव्य (विनोदचंद्र पाण्डेय) jay subhash khand kavya

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यह खंडकाव्य केवल लखनऊ, सहारनपुर, फैज़ाबाद, बाँदा, झांसी, हरदोई आदि जिलो के लिए निर्धारित है।

सुभाषचन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी, 1897 की पवित्र तिथि को कटक में हुआ था। इनके पिता श्री जानकी नाव बोस वहाँ है एक प्रतिष्ठित नागरिक थे। उनकी माता प्रभावती अत्यन्त सदाचारी और उदार हृदय की स्त्री थीं। बचपन से ही सुभाष के जीवन पर माता पिता तथा विद्यालय के एक शिक्षक बेनीमाधव का अत्यधिक प्रभाव पड़ा। साहस, निर्भीकता, बुद्धिमत्ता तथा तेजस्विता बालक सुमा ने अपने माता-पिता और गुरुजी से सहज ही प्राप्त कर ली थी। उन्हें कहीं भी दीन-दुःखी लोग मिल जाते तो उनकी सेवा करने में उने बड़ा सन्तोष होता। एक बार जाजपुर गाँव में भयंकर बीमारी फैलने पर सुभाष ने वहाँ जाकर गाँववालों की सेवा सुश्रूषा की तथा उनका कष्ट दूर करने के बाद ही वापस लौटे। मैट्रिक परीक्षा उन्होंने प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। स्वामी विवेकानन्द का सारगर्भित भाषण सुतसयर मृत्यु ज्ञान की खोज में वह घर से निकल पड़े। काशी, मथुरा, वृन्दावन तथा हरिद्वार आदि स्थानों पर सच्चा साधुत्व प्राप्त न करके वा वापस लौट आये और फिर अध्ययन में जुट गये प्रथम श्रेणी में इण्टर की परीक्षा पास करके वह प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रविष्ट हुए। वही के एक प्रोफेसर जो अंग्रेज थे, भारतीयों से बहुत घृणा करते थे। एक बार भारतीयों के प्रति किये गये अपमान से आहत होकर सुभर ने उनके गाल पर एक तमाचा जड़ दिया परिणामस्वरूप वे स्कूल से निकाल दिये गये एक अन्य विद्यालय से बी0ए० करने के बाद वे इंग्लैण्ड गये और वहाँ कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से आई0सीoएस0 की परीक्षा उत्तीर्ण की, किन्तु उन्होंने भारत आकर अंग्रेजों की

अधीनता में आई०सी०एस० का पद स्वीकार नहीं किया। वे पूरी निष्ठा के साथ देश सेवा के कार्य में लग गये।

द्वितीय सर्ग सुभाषचन्द्र बोस ने पूरी तरह स्वयं को देशसेवा के लिए समर्पित कर दिया। सन् 1921 के असहयोग आन्दोलन के माध्यम से महात्मा गांधी के सम्पर्क में आये और काँग्रेस में सम्मिलित हो गये उसी समय बंगाल में देशबन्धु चितरंजनदास के नेतृत्व में स्वतन्त्रता स्वतंत्रता संग्राम की ज्योति जलायी गयी। परिणामस्वरूप उन्हें अनेक बार जेल जाना पड़ा। वे कलकत्ता नगरमहापालिका के अधिशासी अधिकारी भी रहे और निर्धारित वेतन में से आधा वेतन लेकर पूरी निष्ठा और सेवा-भाव से उन्होंने अपना कार्य किया। जेल यात्राओं के दौरान अंग्रेजों ने उन्हें अलीपुर, बहरपुर तथा माण्डले की जेलों में रखा किन्तु सुभाष के हृदय में स्वतन्त्रता की जलती हुई चिनगारी बुझने के बजाय और अधिक वेग से जलने लगी। परिणामस्वरूप सरकार को झुकना पड़ा और अस्वस्थ सुभाष को अंग्रेजों ने जेल से रिहा कर दिया।

तृतीय सर्ग 

1928 ई० में कांग्रेस के छियालीसवें अधिवेशन के अवसर पर स्वयंसेवक दल का नेतृत्व सुभाषचन्द्र बोस सम्भाल रहे थे। उनकी संगठन शक्ति को देखकर सब पर जादू-सा प्रभाव पड़ा। मंच से अध्यक्षीय भाषण देते समय पं० मोतीलाल नेहरू ने सुभाष की भूरि भूरि प्रशंसा की और उन्हें देश के नवयुवकों का आदर्श कहकर पुकारा। स्वतन्त्रता सेनानियों के एक जुलूस का नेतृत्व करते हुए उन्हें पुलिस ने घायल कर दिया तथा जेल में डाल दिया अलीपुर जेल से रिहा होने के बाद उन्होंने भारतीय जनमानस में पुनः स्वतन्त्रता की अलख जगायी। परिणामतः उन्हें पुनः सिवनी जेल में डाल दिया गया। अस्वस्थ हो जाने पर उन्हें जेल से छोड़ा गया। वे चिकित्सा हेतु यूरोप गये तो वहाँ भी उन्होंने भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन का प्रसार किया। उन्होंने 'द स्ट्रगल' नामक पुस्तक लिखी। भारत लौटने के बाद उन्हें फिर बन्दी बना लिया गया फिर अस्वस्थता के कारण उन्हें रिहा किया गया तथा पुनः वह विदेश गये। लौटने पर उन्हें हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन का अध्यक्ष बनाया गया।

चतुर्थ सर्ग

 ताप्ती नदी के किनारे पर स्थित विट्ठल नगर में कांग्रेस का 51वां अधिवेशन हुआ। इस अधिवेशन में 51 द्वार बनाये गये और 51 राष्ट्रीय ध्वज फहराये गये तथा 51 बैलों के सजे हुए रथ में सुभाषचन्द्र बोस बैठकर आये। सभा में सुभाष के ओजस्वी भाषण को सुनकर जनता में देशप्रेम की ज्वाला धधक उठी, नवयुवकों में नयी चेतना जाग्रत हो गयी| इसके बाद त्रिपुरा काँग्रेस अधिवेशन में अध्यक्ष पद के लिए चुनाव हुआ जिसमें सुभाषचन्द्र जीत गये तथा पट्टाभि सीतारमैया हार गये गांधीजी पट्टाभि सीतारमैया को अध्यक्ष पद पर देखना चाहते थे। गांधीजी के द्वारा रोष प्रकट किये जाने पर सुभाष ने तुरन्त पद-त्याग कर दिया तथा 'फारवर्ड ब्लाक' नामक दल गठित किया। अपने ओजस्वी भाषणों से उन्होंने जनता को उत्साहित किया कलकत्ता में ब्लैक होल नामक स्मारक, जिसमें अनेक अंग्रेजों को जिन्दा दफन कर दिया गया था उसको हटवाने के लिए नेताजी ने बहुत प्रयास किया। किन्तु सरकार द्वारा उन्हें फिर जेल भेज दिया गया। जेल से छूटने के बाद उन्हें अपने घर में ही नजरबन्द रखा गया। इस प्रकार सुभाषचन्द्र बोस मातृभूमि की मुक्ति हेतु निरन्तर अंग्रेज सरकार की यातनाओं को सहन करते रहे।

पंचम सर्ग

नजरबन्दी के बाद सुभाष के घर पर शासन का कड़ा पहरा रहने लगा। वह देश के लिए विशेष रूप से चिन्तित रहने लगे। अतः

उन्होंने वहां से भागने की योजना बनायी और वह जाड़ों की आधी रात को वेश बनाकर विदेश चले गये। काबुल जाकर उत्तमचन्द्र से मित्रता हुई, जिसने उन्हें बाहर निकलने में सहायता की थी। इसके बाद उन्होंने मुल्ला का जापान जाकर 'आजाद हिन्द फौज' का नेतृत्व किया जिसमें अनेक भारतीय युवकों ने भाग लिया। फिर वह सिंगापुर गये जहाँ रासबिहारी बोस ने उनका बहुत सम्मान किया। यहाँ पर सुभाष ने नेहरू, गाँधी, आजाद और बोस नामक चार ब्रिगेड बनाये, जिसमें सभी जातियों = के सेनानी परस्पर प्रेमपूर्वक कार्य करते थे। वे सभी सैनिक ब्रिटिश राज्य को पराजित करने के लिए अति उत्साहित थे।

सिंगापुर में सैनिकों को सम्बोधित करते हुए सुभाष ने भारतीयों का आह्वान किया और नारा दिया, "तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूँगा"

 षष्ठ सर्ग

सुभाष द्वारा प्रेरित किये जाने पर उनकी सेना अंग्रेजों की सेना से भिड़ी और उसे पराजित करने लगी। 'भारत माता की जय', 'नेताजी की जय' का उद्घोष करते हुए आजाद हिन्द फौज निरन्तर आगे बढ़ती जा रही थी 18 मार्च, 1944 ई0 को यह सेना अंग्रेजों को पराजित करती हुई कोहिमा पहुँची। आजाद हिन्द फौज ने 'मोराई टिङ्गिम' पर अधिकार कर लिया। अराकान पर भी तिरंगा झंडा फहरा दिया गया। इस प्रकार से विजय प्राप्त करते हुए उन्होंने 1945 ईo में नव वर्ष को पूर्ण उत्साह के साथ मनाया।

सप्तम सर्ग 

बर्मा पर पुनः दुश्मन ने अधिकार कर लिया। आजाद हिन्द फौज को भी पराजय का मुख देखना पड़ा। अगस्त 1945 ई० में अमेरिका ने हिरोशिमा तथा नागासाकी पर परमाणु बम गिराये, जिस कारण बहुत से नर-नारी मृत्यु को प्राप्त हुए तथा कुछ विकलांग हो गये। जापान ने जनहित को देखते हुए हथियार डाल दिये। आजाद हिन्द फौज के सैनिक व्याकुल होने लगे। यह देखकर सुभाष भी परेशान हो गये। जनहित में उन्होंने भी आत्म-समर्पण का निश्चय कर लिया तथा सैनिकों को पुनः उचित समय पर लड़ाई प्रारम्भ करने का आश्वासन दिया। सुभाष ने सैनिकों से विदा ली तथा जहाज द्वारा टोकियो के लिए प्रस्थान किया। उन्हें जापान के प्रधानमंत्री हिरोहितो' से भी मिलना था। रास्ते में ही दुर्भाग्यवश 18 अगस्त को उनका जहाज ताइहोक में दुर्घटनाग्रस्त हो गया। जापानी रेडियो द्वारा यह दुःखद समाचार प्रसारित किया गया कि नेताजी सुभाषचन्द्र बोस अब नहीं रहे। अचानक प्रसारित इस समाचार पर भारतीय स्तब्ध रह गये। यद्यपि आज हमारे बीच नेता जी नहीं हैं किन्तु उनकी अमरवाणी भारतवासियों को अनन्त काल तक प्रेरणा प्रदान करती रहेगी। भारतवासी युगों-युगों तक उनके शौर्य, पराक्रम और देशभक्ति के गीत गाते रहेंगे।
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      VIVEK KUMAR