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🤩  कहानी का सारांश  🤩
 यशपाल हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध प्रगतिशील उपन्यासकार तथा कहानीकार हैं। इनके द्वारा लिखित कहानी में 'समय' एक परिवार में नई एवं पुरानी पीढ़ी के मध्य वैचारिक भिन्नता से उत्पन्न संत्रास की मार्मिक गाथा है। यह वैचारिक भिन्नता पीढ़ियों के अन्तर या उम्र के अलग-अलग पड़ावों पर खड़े होने का परिणाम है। जो बच्चे बचपन में माँ-बाप को एक पल छोड़ना तक नहीं चाहते थे तथा उनके साथ बाजार जाने की जिद किया करते थे। आज वही बच्चे बड़े हो जाने पर बूढ़े माँ-बाप के साथ बाहर जाने से कतराने लगते हैं।

रिटायरमेण्ट के बाद की स्थिति को लेकर पापा का चिन्तित होना
👉लेखक के पिता को रिटायर होने से डेढ़-दो वर्ष पूर्व ही यह चिन्ता सताने लगती है कि रिटायर होने के बाद अवकाश का बोझ कैसे सम्भाला जाएगा? वह अपनी चिन्ता से मुक्त होने के लिए पहले से अपना समय व्यतीत करने सम्बन्धी योजनाएँ बनाना आरम्भ कर देते हैं।
पापा जी के शौक तथा व्यय में कटौती होना
👉रिटायर होने के पश्चात् पापा समझ जाते हैं कि अब उन्हें मितव्ययी (कम खर्च करना) होना पड़ेगा तथा अपने शौक में परिवर्तन भी करना पड़ेगा। रिटायर होने के बाद पापा ने गर्मियों में हिल स्टेशन जाना छोड़ दिया है और अपनी पोशाक पहनने के ढंग में भी परिवर्तन करने के साथ-साथ अब वे अनावश्यक वस्तुओं पर भी खर्च नहीं करते।
रिटायर हो जाने के पश्चात् पापा की दिनचर्या
👉रिटायर होने के बाद पापा, समय व्यतीत करने के लिए अपने छत्तीस वर्षों के शासन कार्य के अनुभव व विचार के आधार पर एथिक्स ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन' (शासक का नैतिक पक्ष) पर एक पुस्तक लिखने का निर्णय लेते हैं। जिस पर वे सुबह-शाम दो-दो घण्टे काम करते हैं। अब वह सप्ताह में एक दो बार टि सम्बन्धियों तथा मित्रों से भी मिलने जाने लगे हैं। घर की छोटी-मोटी वस्तुएँ खरीदने के लिए भी वे सन्ध्या के समय पैदल ही बाजार चले जाते हैं।
पापा जी के स्वभाव व व्यवहार में परिवर्तन आना
👉रिटायर होने के बाद अब पापा हम में से किसी एक को बाजार जाते समय साथ ले जाते हैं। प्रायः पहले वे हम बच्चों को अपने साथ बाजार नहीं ले जाते थे। क्योंकि बाजार में हम अपनी मनचाही वस्तु जिद करके खरीद लेते थे। लेकिन अब पापा का स्वभाव बदल गया है। अब उन्हें अपने जवान स्वस्थ बच्चों को लेकर बाजार जाने में गर्व अनुभव होता है। वे स्वयं ही बाजार में कॉफी या आइसक्रीम का प्रस्ताव बच्चों के सामने रखते हैं। वे अन्य सेवानिवृत्त लोगों की तरह अपने अनुभव या पुराने जमाने की मन्दी या आज की महँगाई की चर्चा करके बच्चों को बोर नहीं करते। पापा द्वारा बच्चों को साथ ले जाने का मुख्य कारण यह भी था कि वह अँधेरे में ठोकर खाने तथा अधिक रोशनी की चकाचौंध से स्वयं को बचा सकें। 
पापा जी द्वारा समय के बदलाव को स्वीकार करना
👉पापा जी के साथ जाने पर हम बच्चे अपने मित्रों से मिलने पर किसी भी प्रकार की उच्छृंखलता नहीं कर पाते थे। एक बार पापा ने जब साथ चलने के लिए हमें आवाज दी तो मण्टू ने अपने कमरे से ही पुष्पा दीदी को कहा कि "बुड्ढों के साथ कौन बोर होने जाएगा।" उसके धीमे स्वर में बोलने के बावजूद आवाज सम्भवतः पापा के कानों तक पहुँच गई थी। वे अपना कोट हैंगर से उतारकर पहनने जा रहे थे, लेकिन उनका कोट उनके हाथ में ही रह गया। क्योंकि यह वही मण्टू कह रही थी। जो बचपन में रो-रोकर अपनी अम्मी-पापा के साथ जाने की जिद किया करती थी। यह सोचकर पापा के चेहरे पर एक विचित्र विषण्ण-सी मुसकान उभर आई। वे कोट लिए कुर्सी पर बैठ गए। वे कुछ समय तक निश्चल बैठे रहे। मानो किसी स्मृति में खो गए हों। फिर सहसा दृढनिश्चय से वे उठ खड़े हुए और उन्होंने कोट पहनकर अम्मी से पहाड़ से लाई गई छड़ियों में से कोई एक छड़ी माँगी। लेखक ने अपने कमरे में रखी गई एक छड़ी पापा के सामने करते हुए कहा कि एक तो यहाँ पड़ी है। पापा ने छड़ी की मूठ पर हाथ फेरकर कहा कि यह तो बहुत अच्छी है। फिर वे छड़ी टेकते हुए किसी की ओर देखे बिना घूमने के लिए चले गए। मानो हाथ की छड़ी को टेककर उन्होंने समय को स्वीकार कर लिया हो।

Write by Vivek kumar