मेवाड़ मुकुट खंडकाव्य (पँ. गंगारतन पांडेय) mevad mukut khandkavya

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Mevad mukut khand kavya.
यह खण्डकाव्य केवल बुलंदशहर, देवरिया, बरेली, सीतापुर, सुल्तानपुर, बहराइच आदि जिलों के लिए निर्धारित है।
प्रथम सर्ग (अरावली)

राजस्थान के दक्षिण-पूर्वी भाग में अरावली पर्वत श्रृंखला फैली हुई है। वह मेवाड़ की रक्षा का मुर्ण दायित्व स्वीकार करके बड़े ही

गर्व से अपना मस्तक ऊँचा किये हुए खड़ा है। इस अरावली पर्वत की श्रंखलाओं में कभी ऋषि-मुनि तपस्या करते थे और वहाँ पर उनके वेद-मन्त्रों के स्वर गूँजते थे। यूद्ध में पराजित होने के बाद राणाप्रताप इसी सरक्षित स्थान में पहुँचे जिसमें वे अपनी पत्नी-लक्ष्मी और पुर तथा पुत्री को लेकर निवास करते हैं। वन में अनेक कष्टों को सहन करते हुए भी उन्होंने अपने स्वाभिमान की रक्षा की तथा शत्रु पक्ष की कन्या को पुत्री के समान पाला। यह उनकी उदारता तथा शरणागत वत्सलता का प्रमाण है। सर्ग के अन्त में महाराणा प्रताप की पत्नी अपने पुत्र को गोद में लिए भविष्य की चिन्ता में डूबी हुई बैठी है। अरावली पर्वत श्रृंखला पर महाराणा प्रताप की कुटिया, चाँदनी रात का प्रथम पहर है। सर्वत्र नीरवता छायी हुई है। पक्षीगण दिन भर की थकान के बाद अपने-अपने घोंसले में सोये हुए हैं। इस एकान्त तथा निर्जन स्थान पर अपनी कुटिया के समक्ष लक्ष्मी चिन्तामम

द्वितीय सर्ग (लक्ष्मी) 

मुद्रा में बैठी हुई है। अपने भूख से पीड़ित पुत्र को देखकर व्याकुल हो उठी है। राणा की सन्तान होते हुए भी भरपेट दूध भी नहीं नसीब है। रानी लक्ष्मी कहती हैं कि, "कर्मयोग तो आदर्शमात्र है, कर्म भोग ही सच्चा दर्शन है। सज्जन सर्वदा मार्मिक वेदना को प्राप्त करते है, परन्तु कुमार्गी व्यक्ति जीवन में सफलता प्राप्त करते हैं ।" महाराणा प्रताप शत्रु के सामने अपना मस्तक नहीं झुका सकते। इसी स्वाभिमान की रक्षा के लिए सभी प्रकार के दुःखों को सहन कर रहे हैं। लक्ष्मी सम्मान रक्षा हेतु स्वयं को तो कष्टों में डाल सकती है किन्तु अपने पुत्र तथा पुत्री का दुःख उससे देखा नहीं जाता। उसके मुख से अचानक इन शब्दों को सुनकर महाराणा प्रताप रानी के रोने का कारण पूछते हैं। रानी लक्ष्मी 'कुछ नहीं', 'कुछ भी तो नहीं कहकर आँसू पोंछती हुई कुटिया के अन्दर चली जाती है। महाराणा प्रताप के अश्रु भी सहसा निकल आते हैं।

तृतीय सर्ग (प्रताप)

 महाराणा प्रताप कुछ समय तक अपनी कुटिया के समक्ष खड़े हुए कुछ विचार करते रहते हैं। फिर वृक्षों की घनी छाया में आँखें बन्द किये हुए रानी लक्ष्मी के कष्टों के विषय में सोचते हैं वे कहते हैं कि, कर्तव्य का पालन करने से ही यश की प्राप्ति होती है मेवाड़ को मुक्त कराना ही उनका प्रमुख कर्त्तव्य है। इसके लिए वे अपने प्राणों की आहुति तक देने के लिए तैयार हैं। वे सोचते हैं मैं ही अपने कर्तव्य-पथ से विचलित क्यों होऊ। मानसिंह जैसा वीर उसके इशारे पर नाच रहा है अकबर की साम, दाम, दण्ड, भेद की नीति से मैं ही शेष बचा हूँ। पर आज में किस दशा को पहुँच गया हूँ?........रे अकबर! आज राणा को तूने सारे राजपूतों से अलग करके भटका दिया है। मेरा बन्धु शक्तिसिंह भी विद्रोही अकबर से जाकर मिल गया है, किन्तु जब उसकी आत्मा उसे धिक्कारेगी तो अवश्य ही वह लौटकर वापस आयेगा।

महाराणा प्रताप चेतक की स्वामिभक्ति तथा शत्रु पक्ष की कन्या 'दौलत' के विषय में भी विचार करते हैं। वे सिसोदिया वंश की आन रखने का संकल्प लेते हैं, किन्तु साधनहीन हुए वह विचार करते हैं कि वह शत्रु पक्ष का सामना कैसे करें।

चतुर्थ सर्ग (दौलत)

(vk) दौलत चिन्तामग्न मुद्रा में लताओं से आच्छादित घनी छाया में बैठी हुई अपने विगत जीवन के विषय में विचार कर रही है और कहती है-“उस भोग-विलास भरे जीवन में कटुता ही थी प्रीति नहीं।" उसे विगत जीवन अच्छा नहीं लगता। महाराणा प्रताप की सज्जनता के विषय में विचार करती हुई वह कहती है-"अकबर यह क्यों नहीं समझते कि ईश्वर ने सबको समान बनाया है।" वह शक्तिसिंह और प्रताप में तुलना करती हुई कहती है-"ये सूर्य हैं, वह दीपक है" दौलत महाराणा प्रताप के लिए कुछ करना चाहती है। विचारों में निमग्न दौलत को उसी समय किसी के पैरों की ध्वनि सुनायी पड़ती है। यहीं पर इस सर्ग का अन्त हो जाता है। पंचम सर्ग (चिन्ता) 

एकान्त स्थान में बैठी हुई दौलत राणा प्रताप के पदचाप सुनकर उठ खड़ी होती है। राणा प्रताप उसके एकान्त में बैठने और उदासी का कारण पूछते हैं। वह कहती है, "मैं तो बहुत सुखी हूँ, बस एक ही डर है, मेरे कारण कहीं आपकी स्वाधीनता का प्रण न टूट जाय। मैं आपकी कुछ सेवा तो नहीं कर सकी, उल्टे आपके दुःख ही मैंने बढ़ा दिये हैं।" राणा कहते हैं, "पगली! भला कौन-सा दुःख यहाँ मेरे लिए ले आयी है तेरे आने से मुझे एक बेटी मिल गयी है।" दौलत उत्तर देती है, "रानी (लक्ष्मी) तो भीतर ही भीतर पीड़ा का विष पी रही हैं मैं उनसे कुछ पूछने में भी सहमती हूँ। आज आप मेरे साथ चलें, में उनका दुःख दूर करने का प्रयास करूँगी।" 
दौलत तथा राणा प्रताप लक्ष्मी के पास जाते हैं। दौलत अपनी माता से उदासी का कारण पूछती है लक्ष्मी पूरे परिवार को अभागा ी हैं। राणा प्रताप बताते हैं आज उन्होंने मेवाड़ को मुक्त कराने का दृढ़ निश्चय किया है। इसके लिए वे सिन्धु देश से साधन प्राप्त करने की बात करते हैं और अकबर से युद्ध करने की बात बताते हैं। क्षत्राणी होने के कारण लक्ष्मी स्वाधीनता के लिए अपना सर्वस्व कालावर करने के लिए तैयार हो जाती है। अगले दिन प्रताप प्रस्थान करने का निश्चय सुनाते हैं। ) राणा प्रताप प्रातःकाल प्रस्थान का प्रबन्ध करते हैं तभी एक अनुचर आकर उन्हें पत्र देता है। यह पत्र पृथ्वीराज द्वारा भेजा गया है। पृथ्वीराज अकबर के मित्र हैं और कवि हैं, किन्तु राणा प्रताप से भेंट करते हैं और अकबर से युद्ध करने के लिए प्रेरित करते हैं राणा प्रताप उन्हें अपनी साधनहीनता के विषय में बतलाते हैं, तो पृथ्वीराज भामाशाह का परिचय देते हैं और कहते हैं कि भामाशाह आपकी

षष्ठ सर्ग ( पृथ्वीराज)

प्रत्येक प्रकार की सहायता करने को तैयार हैं। पृथ्वीराज उन्हें बुलाने के लिए राणा प्रताप की आज्ञा भी लेते हैं।

सप्तम सर्ग (भामाशाह)

 राणा प्रताप भविष्य के जीवन के विषय में चिन्तन करते हैं। तभी हिरणों का समूह उनके सामने से होकर गुजरता है। इसके बाद मातृभूमि की जय-जयकार करते हुए भामाशाह वहाँ उपस्थित होते हैं। भामाशाह अपने पूर्वजों की संचित सम्पत्ति राणा प्रताप को सौंपने की इच्छा करते हैं, किन्तु राणा प्रताप उसे पराया धन मानकर अस्वीकार कर देते हैं। भामाशाह उन्हें यह समझाते हैं कि यह उनका अपना धन है। राणा प्रताप उन्हें अपने गले से लगा लेते हैं। फिर तो राणा प्रताप में नया उत्साह उत्पन्न हो जाता है। वह देश के हित में मर मिटने के लिए तैयार हो जाते हैं। यहीं पर खण्डकाव्य की कथा समाप्त हो जाती है।
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      VIVEK KUMAR